ख़बर रायपुर
भाषा का बदलता स्वरूप: संवाद से कटुता तक का सफर ..

समाधान की राह: शुद्ध भाषा से संस्कारों की पुनर्स्थापना ..
विशेष लेख: लेखक एम बी बलवंत सिंह खन्ना ..
रायपुर, भारत, एक ऐसा देश जो अपनी सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के लिए विश्वविख्यात रहा है। यहाँ की मिट्टी से लेकर यहाँ की बोली तक में एक खास तरह की आत्मीयता, विनम्रता और मर्यादा झलकती थी। हम बचपन से सुनते आए हैं — वाणी में मधुरता होनी चाहिए, क्योंकि शब्दों में वह शक्ति होती है जो किसी को जोड़ भी सकती है और तोड़ भी सकती है।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि आज वही वाणी, वही भाषा, जो कभी संवाद का सुंदर माध्यम थी, अब कटुता और बत्तमीजी की पहचान बनती जा रही है। समाज के हर वर्ग, हर आयु और हर संबंध में अपशब्दों और अशिष्ट भाषा का प्रयोग न केवल सामान्य हो गया है, बल्कि उसे ‘साहस’, ‘बेबाकी’ और ‘ट्रेंड’ का नाम देकर उचित भी ठहराया जाने लगा है।
भारत के विविध सांस्कृतिक भूगोल में बोली-बानी को हमेशा एक आभूषण की तरह देखा गया है। “पग-पग में बोली बदले , पग-पग में भोजन बदले और पग-पग में संस्कृति” — यह कहावत यूँ ही नहीं बनी थी। भारत विविधताओं का देश रहा है जहाँ हर क्षेत्र की भाषा वहाँ के मूल्यों को दर्शाती थी। मगर जैसे-जैसे वैश्वीकरण का प्रभाव बढ़ा, डिजिटल माध्यमों का वर्चस्व बढ़ा, वैसे-वैसे भाषा से शालीनता का रंग फीका होता गया।
आज सोशल मीडिया, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक, और विशेष रूप से ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर जो कंटेंट परोसा जा रहा है, उसमें अपशब्दों की भरमार है। वेब सीरीज हों या स्टैंड-अप कॉमेडी, फिल्मों के संवाद हों या वायरल वीडियो — कहीं भी भाषा की मर्यादा को लेकर कोई सोच या संकोच नहीं दिखता। दर्शकों को लुभाने के लिए निर्माताओं ने मान लिया है कि गालियाँ और अशिष्ट संवाद ही ‘रियलिज्म’ है, और दुर्भाग्यवश युवा पीढ़ी ने भी इसे आत्मसात कर लिया है।
यहाँ तक कि कई बार ऐसे कंटेंट को परिवार के साथ बैठकर देखना असंभव हो जाता है। बच्चों के सामने ऐसे दृश्य और संवाद चल रहे होते हैं जो न केवल उनके मन-मस्तिष्क पर असर डालते हैं, बल्कि उनके बोलचाल और व्यवहार में भी समाहित हो जाते हैं। वे सोचते हैं कि यही बोलने का तरीका है, यही आधुनिकता है, और यही पहचान है।
सबसे गंभीर बात यह है कि अब उम्र का भी कोई लिहाज नहीं रहा। पहले बड़े-बुजुर्गों के सामने बोलने से पहले बच्चे सोचते थे, अपनी वाणी को नियंत्रित करते थे, लेकिन अब वही बच्चे, किशोर और यहाँ तक कि युवा भी बड़ों के सामने ऊँची आवाज़ में बोलते हैं, अपशब्दों का उपयोग करते हैं, बहस करते हैं, और उसे ‘स्वाभाविक प्रतिक्रिया’ कहकर टाल देते हैं।

जो समाज कभी “बड़ों का सम्मान” और “माँ-बाप की आज्ञा” को सबसे बड़ा धर्म मानता था, वहाँ अब रिश्तों का आधार भी भाषा की मर्यादा से डगमगाने लगा है। पहले यदि कोई घर में गाली दे देता था, तो माँ डाँट देती थी — “ऐसी भाषा मत बोलो, घर में नहीं चलेगा।” अब वही माँ, बेटे की गाली को ‘समय का चलन’ मानकर नजरअंदाज कर देती है।
बच्चों से लेकर बड़ों तक, आज यह माना जाने लगा है कि गाली देना या अशिष्ट भाषा में बात करना ‘खुलापन’ है, एक ‘आत्मविश्वास’ है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह आत्मसंयम की कमी है, और सामाजिक पतन की निशानी भी।
शब्दों की यह गिरावट केवल व्यक्तिगत मामला नहीं है, यह सामूहिक चेतना को प्रभावित करता है। जब समाज में भाषा की गरिमा कम होती है, तो उसके साथ ही रिश्तों में सौहार्द्र, विचारों में संयम और भावनाओं में कोमलता भी समाप्त होती जाती है। गाली केवल कानों को नहीं काटती, वह संस्कारों की जड़ को भी काट देती है।
समाज में यदि अपशब्दों और अशिष्टता को सामान्य मान लिया गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ शुद्ध, मधुर और विनम्र भाषा को संग्रहालय की वस्तु समझेंगी। और तब वह दिन दूर नहीं जब “संस्कारों की भूमि” कहलाने वाला भारत, अशालीनता की छवि के साथ पहचाना जाएगा।
इस समस्या का समाधान भी हमारे ही हाथ में है। सबसे पहले हमें अपने परिवार से शुरुआत करनी होगी। घर के हर सदस्य को, विशेष रूप से बच्चों को, भाषा की मर्यादा का पाठ पढ़ाना होगा। “जो बोलोगे वही बनोगे” — यह बात केवल कहने भर की नहीं, जीने की बात है। विद्यालयों में संवाद की शुद्धता पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। शिक्षकों को भी इस दिशा में सजग होना होगा।
सरकार और नीति-निर्माताओं को ओटीटी और सोशल मीडिया कंटेंट पर एक मर्यादित सेंसर व्यवस्था लागू करनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि हम अपनी संस्कृति और सामाजिक संतुलन को ताक पर रख दें। साथ ही, हमें अपने सामाजिक आयोजनों, उत्सवों और पारिवारिक बैठकों में भाषा की शुद्धता को प्रोत्साहन देना होगा।
यही वह समय है जब हमें ठहर कर सोचना चाहिए — कि हम किस दिशा में जा रहे हैं? क्या वाकई गाली देना, किसी को नीचा दिखाना, अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना हमारी प्रगति का प्रतीक है? या फिर यह हमारे अंदर छिपे असंयम, क्रोध और विवेकहीनता की अभिव्यक्ति है?
वाणी का सम्मान ही समाज का सम्मान है। जब भाषा में मर्यादा होगी, तभी संवाद में सच्चा अर्थ होगा। एक बार फिर हमें अपने शब्दों से सच्चाई, करुणा और संयम का संदेश देना होगा।
“वद वाक्यं प्रियं सत्यं, वद वाक्यं हितं नृणाम्।”
(ऐसी वाणी बोलो जो प्रिय भी हो, सत्य भी हो और सबके हित में हो।)
समाज को यदि संस्कारों से जोड़ना है, तो पहले भाषा को संस्कारमय बनाना होगा। यही सच्चा जागरण होगा — और यही भविष्य की सुरक्षा भी।
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