खबर सक्ती ...
राम लला प्राण प्रतिष्ठा उत्सव की बेला पर राम मंदिर पर एक जीवंत आलेख… एक कारसेवक की जुबानी ..
आलेख_चितरंजय सिंह पटेल, अधिवक्ता उच्च न्यायालय, बिलासपुर ..
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सक्ती, राम लला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे का उद्घोष … २७ अक्टूबर १९९० तिथि कार्तिक शुक्ल अष्टमी, दिन शनिवार को स्व जगदीश सराफ के निवास पर सभी हिंदू धर्म ध्वजा धारण कर राम मंदिर आंदोलन में भाग लेने कार सेवक के रुप मेंअयोध्या जाने के लिए सब एकत्रित हो रहे थे, युवा होने के नाते हम सबको व्यवस्थित बैठाने की जिम्मेदारी निभा रहे थे ।अब तक स्व प्रेरणा से मंदिर आंदोलन में शामिल होने वाले सभी कारसेवकों का आगमन हो चुका था जिसमें मेरे साथ धनेश्वर राठौर, रामप्रसाद राठौर,होश राम राठौर,सीता राम राठोर, सरयू प्रसाद, जगदीश सराफ, नारायण शर्मा, कृष्ण कुमार देवांगन, विजय चंद्रा, मलखे सोनी, मनीष प्रधान आदि शामिल थे फिर सभी कारसेवकों को संघ और अनुसांगिक संगठनों के लोगों के द्वारा चंदन तिलक और पुष्पहार अर्पित कर अयोध्या के लिए विदाई दी गई और आंदोलन रथ याने बस से हमारा सफर शुरु हुआ।
तब अगले पड़ाव बाराद्वार में नंदलाल साहू, घासीराम बंसल, गिरवर अग्रवाल, बबुआ नाई, मनमोहन अग्रवाल आदि आंदोलन रथ में सवार हुए फिर हमारी आंदोलन रथ रात्रि में अमरकंटक के राह चलती हुई दूसरे दिन सरस्वती शिशु मंदिर रीवा के विशाल परिसर में दोपहर विसर्जित हुई जहां विद्यालय परिवार के आचार्य दीदी, भैया बहनों ने दिली स्वागत कर हजारों लोगों के साथ ही हम सबको भोजन कराया। पश्चात आंदोलन रथ पुनः गंतव्य की ओर चल पड़ा पर आगे उत्तरप्रदेश के चाक घाट बॉर्डर पर मुलायम सरकार के पुलिस की चाक चौबंद व्यवस्था ने हमें आंदोलन रथ को त्याग पैदल प्रस्थान के लिए बाध्य कर दिया क्योंकि बॉर्डर पर सड़क में ५ फीट गहरी खाई खोद कर सड़क मार्ग अवरूद्ध किया जा चुका था जहां किसी भी वाहन का सीमा में प्रवेश करना असंभव था । अब शुरु हुआ बार्डर से ४० किमी का पैदल रात भर का सफर, जहां हिंदुत्व का अपनत्व अपने चरम सीमा पर था रास्ते भर कार सेवक लिए आम लोग खान पान की सामग्री लेकर आंदोलनकारियों की कारसेवा में रात भर लगे रहे और पूरे पैदल सफर में पूरी रात रास्ते में खड़े लोग जय श्री राम के उदघोष के साथ संदेश दे रहे थे कि मानो इस बार कार सेवा शुभारंभ तारीख ३० अक्टूबर तिथि कार्तिक शुक्ल एकादशी को अयोध्या पहुंच जन्म भूमि को आजाद करा ही लेना तब कार सेवक भी जवाबी नारे के साथ खाली हाथ नहीं लौटने का संकल्प ले रहे थे। २९ अक्टूबर की सुबह के करीब ६ बजे अरुणोदय की बेला में भुवन भास्कर सूर्य की किरणें आंखो पर पड़ रही थी जिससे रात्रि जागरण का असर से आंखों में कसक का अहसास हो रहा था, तब हम लोग प्रयागराज के द्वार जमुना पुल पहुंच चुके थे। जमुना पुल पार करते ही गऊ घाट पर स्थानीय उत्तरप्रदेश पुलिस से सामना हुआ जो मुलायम के सोच के विपरीत कारसेवकों से आत्मीयता के साथ पेश आई और आगे अयोध्या के लिए मार्ग सुझाते हुए नाव से नदी पार कर झूंसी जाने और फिर प्रतापगढ़ मार्ग से पैदल अयोध्या पहुंचने की बात बताई क्योंकि इलाहाबाद शहर के भीतर कर्फ्यू के साए में गिरफ्तार कर लिए जाने पूरी संभावना थी लेकिन रात भर के सफर में थक चुके हमारे वरिष्ठों ने चंद कदम दूर विश्व हिंदू परिषद दफ्तर में आमद देने की बात कही जिसका हम विरोध भी किए कि आंदोलन की राह विश्राम की बात बेमानी है,पर बहुमत वरिष्ठों के साथ था। फिर क्या था गऊघाटजमुना पुल से नीचे कीड़गंज के गलियों में चल पड़े पर वहां मिलिट्री फोर्स पीएसी के जवानों के यातना के शिकार होते देर नहीं लगी जहां स्थानीय राममंदिर आंदोलन के समर्थक हिंदू समाज के लोगों के विरोध से नाराज फोर्स ने हम कारसेवकों को निशाना बनाया तब स्थानीय निवासी डा सिंह ने अपने छोटे से क्लिनिक में पनाह देने की कोशिश भी की पर नाराज पी ए सी के जवानों ने क्लिनिक से बाहर निकाल_ निकाल सब पर डंडे बरसाने लगे पर वे भी कारसेवक का भान होते ही भाग जाने की बात कहते हुये सबको छोड़ रहे थे लेकिन उस बीच अकेले मुझे मिलिट्री फोर्स के पांच डंडों का एक साथ वार बर्दाश्त करना पड़ा और अनवरत वार से जख्मी, मैं जमीन पर गिर पड़ा, शायद वे मुझे स्थानीय इलाहाबादी छोकरा समझकर पूरी खुन्नस मिटाने में लगे थे पर स्व धनेश्वर राठौर व जगदीश सराफ के वरजने के बाद मुझे भी कारसेवक समझ वार करना बंद किए पर तब तक चोटों से हाथ पैर की चमड़ी कट फट चुकी थी… लहू बह रहा था पर मेरा सौभाग्य था कि कीड गंज मुहल्ले के निवासी हरिसागर मिश्रा के परिवार मुझे जख्मी हालत में उठाकर अपने घर ले गया, जहां पर बूढ़ी दादी के साथ घर की बहनें मेरी तीमारदारी में लगे रहे कि कोई चंदन का लेप लगा रहा है तो कोई हल्दी का काढ़ा पिला रहा है धीरेधीरे देर रात जब दर्द कम हुआ और राहत महसूस होने लगी, तब मुझे अपने साथियों से बिछड़ने की चिंता सताने लगी। तभी स्थानीय लोगों व विश्व हिंदू परिषद के पहल से रात में ही भोजन,दवा आदि के व्यवस्था के साथ अंधेरे के आड़ में अपने लोगों के बीच पहुंचाया गया पर अब हमारे अयोध्या तक पहुंचने पूरे विकल्प खतम हो चुके थे। सरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय, कीडगंज का छोटा सा भवन जो विश्व हिंदू परिषद कार्यालय का नाम ले चुका था जिसमें १९ राज्यों के करीब सैकड़ों बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलापुरुष अघोषित रुप से मिलिट्री फोर्स के निगरानी में अघोषित रूप से बंदी बनाए जा चुके थे जहां दरवाजे से बाहर झांकना भी मुनासिब नहीं था ।
पर जहां मुलायम का आतंक चरम पर था तो वहीं सभी कारसेवकों के भीतर अपने आराध्य राम के लिए मर मिटने का जज्बा पैदा करने वाले संघ के दायित्ववान स्वयं सेवक की मौजूदगी विपरीत परिस्थिति मे भी सबके बीच ऊर्जा पैदा कर रही थी और हर पल हर क्षण किसी न किसी कोने से जय श्री राम के उद्घोष भवन गूंज उठता था और रात में छत के रास्ते स्थानीय लोगों के मदद से भोजन प्राप्त होता था पर इन सबके दरम्यान हम सबको अयोध्या नहीं पहुंच पाने का मलाल था फलस्वरुप प्रबंधकों ने एक छोटी सी ब्लैक एंड व्हाइट टी वी चलाकर दूर किया… तब ३० अक्टूबर १९९० कार्तिक शुक्ल देवउठनी एकादशी का वह क्षण भी आया, मानो सारे देवी देवता जाग कर आकाश मार्ग से कारसेवकों के रूप धरती पर उतर आए हों और हमारे हजारों आखों ने उस छोटी सी टी वी में बाबरी ढांचे के गुंबद पर पर युवा कारसेवक शरद एवम राम कोठारी बंधुओं ने भागे ध्वज्वा फहराते और ३०हजार पीएसी के जवानों की चाक चौबंद नाके बंदी के बाद भी अशोक सिंहल, विनय कटियार, उमा भारती के अगुवाई में हजारों की संख्या कारसेवकों के उदघोष व जोश को देखकर हम सब पागल हो झूमने लगे और अब मैं अपना पूरा दर्द और चोट भूल चुका था और मना करने के बाद भी अपने चोटों की परवाह किए बिना खुशी से नाचने लगा।
अब बाबरी विध्वंस की कालिख मिटना सुनिश्चित नजर आ रहा था और हमें अपना कारसेवा आंदोलन में हमारा आना सार्थक तथा सृजनात्मक लग रहा था क्योंकि बाबरी विध्वंश एक ऐसा विध्वंश था जिसमें रामलला के भव्य मंदिर के सृजन साफ झलक रहा था… अब सब प्रथम चरण के आंदोलन की सफलता की खुशी थी तो वहीं २ नवंबर को खिसयाए मुलायम ने निहत्थे कारसेवकों पर गोलियों की बौछार कर हजारों लोगों के साथ कोठारी बंधुओं को मौत की घाट उतार कर लाशें सरयू नदी में बोरी के साथ बांध कर फेंक दिए जिससे सरयू नदी का जल रक्त रंजित हो गया था ।
तब आंदोलन के अगुवाइयों ने मुलायम की बर्बरता को देख कर प्रथम चरण का आंदोलन स्थगित कर कारसेवकों से वापस घरों में लौटने का आह्वान किया तब हमें भी प्रथम चरण के आंदोलन के उद्देश्य पूर्ति पर घरों की याद आने लगी थी पर सरकार के अघोषित जेल से रिहा का फरमान पांचवे दिन ब्रम्ह बेला में सुबह चार बजे मिली और रात के अंधेरे में हमें नैनी स्टेशन के लिए मौन जुलूस के रूप निकलना पड़ा और रेलवे स्टेशन में स्पेशल ट्रेन में अपने स्वजनों से शीघ्र मिलने की तीव्र इच्छा से ट्रेन में सवार होते ही जय श्री राम का उद्घोष फिर गूंजने लगा।
अब ट्रेन कटनी स्टेशन पहुंच चुकी थी लोग गले मिलकर फुल मालाओं और मिठाइयों से कारसेवकों का अभिनंदन कर रहे थे यह मेरे खुद के लिए विशेष आनंददायी और स्मरणीय पल बन गया। जब लोगों को पता चलता कि मैने सबसे ज्यादा चोटें खाई है लोग मेरी ओर टूट पड़ते थे जैसे बॉर्डर के सैनिक ने युद्ध में लड़ते कोई जख्म खाई हो और उसी सम्मान के साथ फुल मालाओं से लाद देते थे।
हम सब अपने गांव_घरों में पहुंच चुके थे, लोगों के मिलने जुलने के साथ सब कुछ जानने की उत्सुकता का दौर चला। फिर वरिष्ठों का निर्देश मिला कि उन पलों को आमजनों को बताया जाय। खासकर! भावी पीढ़ी याने स्कूली बच्चों को, तब कचहरी चौक सक्ती में लोक स्वर के तत्कालीन संपादक भाकरे जी के साथ मुझे भी अपने जीवंत संस्मरण सुनाने का आदेश मिला फिर कई दिनों तक मुझे विभिन्न कार्यक्रमों में कार सेवा के संस्मरण सुनाने का अवसर प्राप्त हुआ। विदित हो कि सक्ती अंचल से तत्कालीन विधायक कुमार पुष्पेंद्र बहादुर सिंह की अगुवाई में लक्ष्मी सोनी, दीपक गुप्ता, परमेश्वर सिंह, लखन, अजीज खान आदि करसेवा में गए तो वहीं बाराद्वार अंचल से रमेश सिंघानिया के साथ भी लोग कारसेवा में पंहुंचे थे।
कारसेवा में सहभागिता के बाद मुझे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ विद्यार्थी परिषद के द्वारा चारित्रिक विकास के प्रयास और मेरे व्यक्तित्व निर्माण के दरम्यान गुजारे पलों पर गर्व होना लाज़िमी था, और वही गौरवान्वित होने का अहसास आज भी विपरीत परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और अनुसांगिक संगठनों से आजीवन जुड़े रहने का संबल प्रदान करता रहता है।
आज जब अयोध्या धाम में श्री राम मंदिर में राम लला के विराजमान होने की घड़ी जैसे जैसे निकट आ रही है… मन प्रफुल्लित है पर किसी कोने में इस बात की कसक भी है हमारे साथ के कई कारसेवक इस बहुप्रतीक्षित सुखद बेला पर इस दुनिया में नहीं है और जो हैं उनकी भी सुध लेने में कहीं कहीं उदासीनता या कहें उपेक्षा दिखाई दे रही है क्योंकि एक ओर तो इस बात की सूचना है कि रामलला दर्शन हेतु छत्तीसगढ़ से प्रथम चरण में २००० की संख्या में कारसेवकों को जाना है पर बहुत से कारसेवकों को इसकी जानकारी भी नहीं है, तो वहीं १९९० की घटना जिनके जेहन में भी नहीं है वे लोग वर्तमान पदाधिकारी होने का दावा करते हुए कार सेवकों को सीट फुल हो जाने की नसीहत देते नजर आ रहे हैं। अगर ऐसा है तो यह दुखद बात है कि जिन लोगों ने भूख प्यास सही हो या फिर लाठी डंडे खाए हों या रक्त बहाए हों उनसे कम से कम सम्मान से बात तो करें क्योंकि उन्हें भी सीट फुल हो जाने की चोचली बातों का अर्थ भलीभांति मालूम है ।
यद्यपि शासन सत्ता के इस दौर में पिछले दरवाजे से एंट्री वर्तमान में फैशन बन चुका है फिर भी मंदिर आंदोलन के कारसेवकों व शहीदों का उच्च स्तर पर जब गंभीरता से सुध ली जा रही है तो नीचे पायदान पर स्थानीय जवाबदार लोगों के द्वारा कारसेवकों के योगदान को तिरस्कृत करना कदापि संघ के सिद्धांतों के अनुकूल नहीं हो सकता। इसलिए आशा की जा सकती है जिम्मेदार पदाधिकारी गंभीरता से कारसेवकों के सम्मान की दिशा में अमल करें क्योंकि स्वयं पीछे हटकर दूसरों को सम्मान देते हुए समरस समाज के निर्माण में सहभागिता सुनिश्चित करने का नाम ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ है…
चितरंजय पटेल (कारसेवक)
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